आचार्य श्रीराम शर्मा >> अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रहश्रीराम शर्मा आचार्य
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जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह
(च)
चकोर भरोसे चन्द्र के निगलै तप्त अंगार।
कहैं कबीर डाहै नहीं, ऐसी वस्तु लगार॥
चटक न छाड़त घटत हू, सज्जन नेह गभीर।
फीको परै न बरू फटे, रंग्यो चोल रंग चीर॥
चतुराई सूवै पढ़ी, साई पंजर माहिं।
फिरि प्रबोधै आन कौं, आपण समझै नाहि।।
चतुराई हरि ना मिलै, ए बाताँ की बात।
एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपीनाथ॥
चन्दन बास निवारहू, तुझ कारण बन काटिया।
जियत जीव जनि मारहू, मुये सबै निपातिया॥
चन्दन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है।
हर नारी देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है।।
चर अचर सभी जड़ चेतन में, हे मातु तुम्हारा रूप दिखे।
रोते दुखियों के आँसू में, हे मातु तुम्हारा दरश मिले॥
चरणों में तेरे जीना मरना, दूर यहाँ से जाना क्या।
एक बार जहाँ सिर झुक जाए, फिर सर को वहाँ से उठाना क्या॥
चरन चोंच लोचन रंग्यो, चल्यो मराली चाल।
छीर-नीर-बिबरन समय, बक उघरत तेहि काल॥
चलब नीति मग-राम पग, नेहनि बाहब नीक।
तुलसी पहिरिय सो बसन, जो न पखारे फीक॥
चलती चक्की देख के, नैनन आया रोय।
दुइ पाट भीतर आय के, साबुत गया न कोय॥
चलते चलते पगु थका, नगर रहा नौ कोस।
बीचहि में डेरा परा, कहह कौन को दोष॥
चल रही आँधी भयानक, भँवर में नैया पड़ी।
थाम लो पतवार गिरिधर, जिससे बेड़ा पार हो।।
चलेंगे हम जगत जननी, तुम्हारे ही इशारों पर।
न है चिन्ता कि डूबें या, पहुँच जायें किनारों पर॥
चले जाहु ह्याँ को करत, हाथिन को व्यापार।
नहिं जानत या पुर बसत, धोबी ओड़ कुम्हार॥
चले तो गये पथ दिखाते चलोगे।
यह विश्वास हमको दिलाते चलोगे॥
चलै जु पन्थ पिपीलका, पहँचे सागर पार।
आलस में बैठो गरुड़ पड़ी रहे मन मार॥
चलो गुरुज्ञान का दीपक, हमें घर-घर जलाना है।
अँधेरे से डरे हैं जो, उन्हें हिम्मत बँधाना है।।
चलो गुरुदेव के सपने सजाने की शपथ ले लें।
सुखी सुरधाम सी वसुधा बनाने की शपथ ले लें।।
चलो जन्म दिन को मनाने चलें हम।
नई योजनाएँ बनाने चलें हम॥
चलो मन! शान्तिकुञ्ज की ओर।
चलो रे मन शान्तिकुञ्ज की ओर॥
चहल पहल अवसर परे, लोक रहत घर घेर।
ते फिर दृष्टि न आवहीं, जैसे फसल बटेर॥
चाँद सितारों से हम इसकी माँग सजायेंगे।
दुल्हन सा प्यारा देश बनायेंगे।।
चार चोर चोरी चले पगु पनहीं उतार।
चारिउ दर थूनी हनी पण्डित करहु विचार॥
चारिमास घन बर्षिया, अति अपूर जल नीर।
पहिरे जड़ तम बख्तरी, चुभै न एकौ तीर॥
चारा प्यारा जगत में, छाला हित कर लेय।
ज्यों रहीम आटा लगे, त्यों मृदंग स्वर देय॥
चारों ओर पाप ने अपने, पहरे कठिन लगाये।
चक्रव्यूह क्यों देव हिमाञ्चल,तोड़ न अब तक पाये॥
चाहते हो दुख मिटे तो दिल, किसी का मत दुखाओ।
कामना हो प्रभु मिले तो, बिछुड़तों को फिर मिलाओ॥
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस।
जा पर विपदा परत है, सो आवत यहि देस॥
चुम्बक लोहे प्रीति है, लोहे लेत उठाय।
ऐसा शब्द कबीर का, काल से लेत छुड़ाय॥
चेतो युगऋषि के आवाहन पर ध्यान धरो।
व्रतधारी बनकर नया सृजन अभियान करो॥
चोर चतुर बटमार नट, प्रभु प्रिय भड़वा भंड।
सब भच्छक परमारथी, कलि सुपंथ पाखण्ड॥
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